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Opinion Tandoor निबंध संग्रह 2025- साहित्य, समाज और सिनेमा

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Opinion Tandoor निबंध संग्रह 2025- साहित्य, समाज और सिनेमा

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भारतीय फिल्मों के उदय के साथ ही दो मुख्य विषय इनके मूल्यांकन के साथ अंतरंग रूप से जुड़े रहे हैं। वे हैं साहित्य और समाज और भारतीय फिल्मों का इन दोनों से संबंध। इस निबंध संग्रह में प्रस्तुत हैं इन्हीं दो विषयों पर आधारित भारतीय फिल्मों के मूल्यांकन करते कुछ लेख।

भारतीय फिल्मों की कहानियों के लिए आरम्भ से साहित्यिक कृतियों को आधार बनाया गया है। कुछ फिल्में प्रसिद्ध कृतियों पर आधारित रहीं तो कुछ सीधे तौर पर विशिष्ट रचनाओं के अनुरूपण के रूप में प्रस्तुत हुईं। इस संग्रह का पहला लेख ऐसी ही दो कालजयी रचनाओं के फिल्मी अनुरूपण पर आधारित है। इनमें पहली रचना है प्रख्यात हिंदी लेखक प्रेमचंद की लघु-कथा, शतरंज के खिलाड़ी और दूसरी रचना है विश्व प्रसिद्ध बांग्ला और अंग्रेज़ी साहित्यकार रवींद्रनाथ टैगोर का उपन्यास, चोखेर बालीशतरंज के खिलाड़ी पर विश्व प्रसिद्ध निर्देशक सत्यजीत रे ने 1975 में फिल्म बनाई थी और वहीं चोखेर बाली पर प्रख्यात निर्देशक ॠतुपर्णो घोष ने 2003 में फिल्म बनाई थी। इस लेख में जिस बात पर मुख्य रूप से ध्यान दिया गया है वह है कि साहित्य की दो भिन्न विधाओं की रचनाओं, लघु-कथा और उपन्यास के फिल्मी अनुरूपण में किस प्रकार की चुनौतियाँ सामने आती हैं और दोनों निर्देशकों ने किस प्रकार इन चुनौतियों का सामना किया है।

जहाँ पहला लेख लघु-कथा और उपन्यास के फिल्मी अनुरूपण पर आधारित है वहीं दूसरा लेख साहित्य की एक अन्य प्रमुख विधा के फिल्मी अनुरूपण पर ध्यान देता है और वह है नाटक। भारतीय फिल्मों में जिस नाटककार की रचनाओं का सबसे अधिक प्रयोग हुआ है वह हैं प्रख्यात अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपियर। उनके जुड़वाँ किरदारों वाले नाटक ‘द कॉमेडी ऑफ़ एरर्स’ का ना जाने कितनी भारतीय फिल्मों में अनुरूपण किया जा चुका है। इनमें से एक विशिष्ट फिल्म है गुलज़ार द्वारा निर्देशित 1982 की फिल्म अंगूर । इस लेख में उनकी इसी फिल्म की शेक्सपियर के नाटक के संदर्भ में चर्चा की गई है। साथ ही इस फिल्म का 70 के दशक में विकसित हुई भारतीय सिनेमा की एक खास श्रेणी, मध्यमवर्गीय सिनेमा के संदर्भ में भी मूल्यांकन किया गया है।

मध्यमवर्गीय सिनेमा के विषय पर ही इस संग्रह का तीसरा लेख भी आधारित है। इस लेख में मध्यमवर्गीय सिनेमा श्रेणी के उद्गम और विकास पर इस प्रकार की सिनेमा के एक खास निर्देशक, ॠषिकेश मुखर्जी की सुप्रसिद्ध फिल्म चुपके-चुपके के संदर्भ में चर्चा की गई है। इस फिल्म के माध्यम से मध्यमवर्गीय सिनेमा के कुछ खास तकनीकी, रचनात्मक और सामाजिक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है और इस बात पर भी ध्याक आकर्षित किया गया है कि कैसे इस प्रकार की सिनेमा 90 के दशक के बाद के बाज़ारवाद और उदारवाद के समय में भी अपना एक अलग स्थान अब भी बनाए हुए है।

फिल्मों और समाज के संबंध की बात केवल फिल्मों की कहानी तक सीमित नहीं है। हिंदी फिल्मों में गीतों का भी अपना एक अलग सामाजिक महत्व है। इस संग्रह का चौथा लेख इसी संबंध के एक खास पहलू पर प्रकाश डालता है। अमिता चतुर्वेदी द्वारा लिखा गया यह लेख साठ के दशक से लेकर इक्कीसवीं सदी तक की हिंदी फिल्मों में चित्रित शादियों में विदाई के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में महिलाओं की असहायता और लाचारी के महिमामंडन को रेखांकित करता है। इस लेख के माध्यम से अमिता चतुर्वेदी न केवल फिल्मों में बल्कि असल दुनिया में भी विदाई की रस्म के माध्यम से विवाह की संस्था और परंपरा के संदर्भ में महिलाओं की स्थिति का एक उत्कृष्ट मूल्यांकन प्रस्तुत करती हैं।

इस संग्रह का अंतिम लेख पाठकों को काल्पनिक कहानियों पर आधारित फिल्मों से यथार्थ पर आधारित एक फिल्म की ओर ले जाता है। यह लेख 2015 में शौनक सेन द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंटरी सिटीज़ ऑफ़ स्लीप (नींद के शहर) की एक समीक्षा है। यह फिल्म गरीबी को एक ऐसे चश्मे से देखती है जिससे शायद ही इसे पहले देखा गया हो। यह दृष्टोकोंण है नींद का। गरीबी और नींद के अभाव का कितना गहरा संबंध है, यह बात इस फिल्म का मुख्य केंद्रबिंदु है। साथ ही यह फिल्म यह भी दिखाती है कि कैसे दिल्ली जैसे शहरों में नींद एक कारोबार या यूँ कहें कि कालाबाज़ारी का एक उत्पाद बन चुकी है। इस लेख में फिल्म की समीक्षा द्वारा नींद के इसी सामाजिक-आर्थिक गणित को रेखांकित किया गया है।

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'साहित्य, समाज और सिनेमा' निबंध संग्रह

Pages
24
Size
5 MB
Length
24 pages
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